आज़ाद भारत का आर्थिक इतिहास |
भारत की अर्थव्यवस्था
को मोटे तौर पर तीन भागों मे बांटा जा सकता है:
ब्रिटिश काल से पहले
ब्रिटिश काल मे
थोपी गयी आज़ादी 1947 के बाद
ब्रिटिश काल के पूर्व - भारत में उद्योग-धंधे इतने प्रचुर थे उस समय दूर-दूर तक कोई चोर न था, कोई बेईमान नहीं था कारण सभी को अपने उपभोग के लिए पर्याप्त वस्तुएं और संसाधन मिल जाता था । इसीलिए भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था ।
आभूषण उद्योग बहुमुल्य रत्नों का तो पूछिये मत विदेशों से आयात भी होता था और दक्षिण भारत
की खानों से भी हीरे निकाले जाते थे । सीसफूल सिर का आभूषण था । माथे
के आभूषण था । माथे के आभूषण टीका या माँगटीका, झूमर और बिन्दी थे। माथे पर बिन्दी
लगाने का आम रिवाज था और बिन्दी में मोती जड़े होते थे। आभूषण थे। गले के आभूषण हार,
चन्द्रहार, माला मोहनमाला, माणिक्य माला, चम्पाकली, हँसली, दुलारी, तिलारी, चौसर, पँचलरा
और सतलरा थे। दुलारी दो लड़ों, तिलारी तीन लड़ों, चौसर चार लड़ों, पँचलरा पाँच लड़ों
और सतलरा सात लड़ों का आभूषण था। कमर का आभूषण तगड़ी या करधनी था । इसमें घुँघरू लगे
होते थे जो चलते समय बजते थे। अँगूठी या मूँदरी अँगूली का आभूषण था जिसका बड़ा प्रचलन
था। आरसी अँगूठे का आभूषण था, इसमें एक दर्पण लगा होता था। जिसमें मुँह देखा जा सकता
था। पौंची, कंगन, कड़ा, चूड़ी और दस्तबन्द कलाई के आभूषण थे। भुजा के आभूँषण बाजूबन्द
या भुजबन्द थे। बाजुबन्द का संस्कृत नाम भुजबन्द था। पैरों के आभूषण पाजेब, कड़ा थे।
पैरों की अँगुलियों में बिछुए पहने जाते थे। पैरों के आभूषण आमतौर पर चाँदी के बने
होते थे, जबकि दूसरे आभूषण सोने के बनते थे। गरीब लोग चाँदी के आभूषण पहनते थे ।
भारत केवल एक राष्ट्र ही नहीं था, बल्कि सभ्यता, संस्कृति
और भाषा में विश्व का मातृ संस्थान था । भारतभूमि हमारे दर्शन, संस्कृति और सभ्यता
की मां कही जा सकती है। विश्व का ऎसा कोई श्रेष्ठता का क्षेत्र नहीं था, जिसमें भारत
ने सर्वोच्च स्थान न हासिल किया हो। चाहे वह वस्त्र निर्माण हो, आभूषण और जवाहरात का
क्षेत्र हो, कविता और साहित्य का क्षेत्र हो, बर्तनों और महान वास्तुशिल्प का क्षेत्र
हो अथवा समुद्री जहाज का निर्माण क्षेत्र हो, हर क्षेत्र में भारत ने दुनिया को अपना
प्रभाव दिखाया ।
ब्रिटिश काल में - जब अंग्रेज
भारत आए, तो उन्होंने राजनीतिक दृष्टि से
कमजोर, लेकिन आर्थिक दृष्टि से अत्यंत वैभव और ऎश्वर्य संपन्न भारत को पाया । भारत के पास भुगतान की जो बचत है, उसे ब्रिटेन अपने वित्तीय घाटे
को पूरा करने के प्रयोग में लाता है, लेकिन वह कहते थे कि भारत को इसके लिए अंशत: मुआवजा
दिया जाता, जो सोने और चांदी के रूप में भारत में आयात होता । जिसमें से थोड़ा भाग बहुमूल्य
धातु का टकसाल में सिक्के (मुद्रा) बनने के लिए जाता और ज्यादातर निजी भारतीय हाथों
में जाता । भारतीय हमेशा सोने और चांदी से सम्मोहित होते हैं । इसीलिए रोमन प्लीनी
ने -
भारत को विश्व में सोने में डूबा
हुआ कहा । अंग्रेजों का मुख्य लक्ष्य था कि भारत से ब्रिटेन
की ओर धन के प्रवाह को हमेशा बनाये रखें । मुख्यत: उन्नीसवीं शताब्दी में, यह सिर्फ
सकल घरेलू उत्पाद का डेढ़ प्रतिशत भाग था । रोमन सैन्य कमांडर और दार्शनिक प्लीनी द
एल्डर ने भारत को 'दुनिया के बेशकीमती सोने का सिंक'कहा था, सोना जो भी हो, है तो स्त्री-धन
। परिवार आज भी लड़की को विवाह के समय सोने के आभूषणों के रूप में ही उसका हिस्सा देना
पसंद करते हैं । भारत रोमन साम्राज्य का स्वर्ण
भंडार खाली कर रहा था, क्योंकि रोमन लोगों को भारत में पैदा चीजों की जरूरत थी जबकि
भारत को ऐसी किसी चीज की जरूरत नहीं थी, जिन्हें रोमन बनाते थे। इसलिए रोम भारतीय वस्तुओं के बदले में
सोना देता था। हम यह भूल जाते हैं कि 5,000 मील लंबे समुद्र तट वाला
भारत एक महान व्यापारिक राष्ट्र था । अंग्रेजों
ने धोखाधड़ी, अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार के माध्यम से राज्य हड़पे, अमानुषिक टैक्स लगाए,
करोड़ों को गरीबी और भुखमरी के गर्त में धकेला तथा भारत की सारी संपदा व वैभव लूटकर
ब्रिटेन को मालामाल किया ।
तथाकथित आज़ादी के बाद - भारत में भ्रष्टाचार
की बुनियाद का इतिहास बहुत पुराना 1934 कागज
का नोट है । रुपये का अवमूल्यन भारत की धन
सम्पदा का अवमूल्यन है । भारत की तथाकथित
आजादी के पूर्व अंग्रंजों ने सुविधाएं प्राप्त करने के लिए भारत के सम्पन्न लोगों को
सुविधास्वरूप धन देना प्रारंभ किया । राजे-रजवाड़े और साहूकारों को धन देकर उनसे वे
सब प्राप्त कर लेते थे जो उन्हे चाहिए था । अंग्रेज भारत के रईसों को धन देकर अपने
ही देश के साथ गद्दारी करने के लिए कहा करते थे और ये रईस ऐसा ही करते थे । अंग्रेजों ने भारत में सबसे पहले भारत की शिक्षा व्यवस्था
को बदला फिर मुद्रा विनियमन प्रणाली स्वर्णमान को ख़त्म किया और भारत के मुख्य लोगों
से समझौता करने के बाद रुपये का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और भारत की जनता ने समझा हम आज़ाद हो गए । यानि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ यहाँ से भ्रष्टाचार प्रारम्भ हुआ
और तब से आज तक रुपये के क्रयशक्ति के घटते क्रम में लगातार चलते हुए फल फूल रहा है
!
हलाकि हमारे भारत का सकल घरेलु उत्पाद 1978 तक चीन के बराबर था आप चार्ट के माध्यम से देख सकते हैं । रुपये
के अवमूल्यन के चलते पहले भ्रष्टाचार के लिए परमिट-लाइसेंस
राज को दोष दिया जाता था, पर जब से देश में वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण, विदेशीकरण,
बाजारीकरण एवं विनियमन की नीतियां आई हैं, तब से घोटालों की बाढ़ आ गई है । इन्हीं
के साथ बाजारवाद, भोगवाद, विलासिता तथा उपभोक्ता संस्कृति का भी जबर्दस्त हमला शुरू
हुआ है । लेकिन किसी ने यह विचार नहीं किया की हो क्या रहा है और हमें इसके विकल्प
के लिए करना क्या चाहिए ? राष्ट्र की परेशानी का मुख्य बिंदु क्या है । किसी लोक सेवक
को अगर पता भी था तो उन लोगों का इतिहास आपको आज की किताबों में देखने को नहीं मिलेगा
! यह भी अपने आप में एक गुलामी की रणनीति ही है । अगर हमारी पुरानी शिक्षा पद्धति होती
तो शायद हम हमारे
भविष्य को आसानी से रोशन कर सकते थे !